भारत में समानता ... सिर्फ मताधिकार की या...


आज एक कहानी सुनिए....

कहानी का प्रारंभ एक महिला (कांता) के वोट देने की लाइन में खड़े होने से होता है। उसके साथ और भी बहुत से लोग लाइन में खड़े हैं। कांता अपने मालिक को पहचान लेती है और अपने पड़ोसी को भी।

भारत जैसे एक लोकतंत्रीय देश में सब वयस्कों को मत देने का अधिकार है चाहे उनका धर्म कोई भी हो, शिक्षा का स्तर या जाति कुछ भी हो, वे गरीब हों या अमीर। इसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहा जाता है और यह सभी लोकतंत्रें का आवश्यक पहलू है। ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का विचार’, समानता के विचार पर आधारित है, क्योंकि यह घोषित करता है कि देश का हर वयस्क स्त्री/पुरुष चाहे उसका आर्थिक स्तर या जाति कुछ भी क्यों न हो, एक वोट का हकदार है।



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कांता वोट देने के लिए बहुत उत्सुक है और यह देख कर बहुत खुश है कि वह अन्य सबके बराबर है, क्योंकि उन सबके पास भी एक ही वोट है। 


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परंतु जैसे-जैसे दिन बीतता जाता है, कांता के मन में समानता के वास्तविक अर्थ के बारे में शंका होने लगती है।

वह क्या बात है, जिसने कांता के मन में शंका पैदा कर दी?
तो चलिये उसके जीवन की दिनचर्या देखें। 

वह एक झोपड़पट्टी में रहती है और उसके घर के पीछे एक नाला है। उसकी बेटी बीमार है, परंतु वह अपने काम से एक दिन की भी छुट्टी नहीं ले सकती क्योंकि उसे अपने मालिक से बच्ची को डॉक्टर के पास ले जाने के लिए पैसे उधार लेने हैं। घरेलू काम की नौकरी उसे थका देती है और अंततः उसके दिन की समाप्ति फिर लंबी लाइन में खड़े होकर होती है। सरकारी अस्पताल के सामने लगी यह लाइन, उस लाइन से भिन्न है, जिसमें वह सुबह लगी थी, क्योंकि इस लाइन में खड़े अधिकांश लोग गरीब हैं।

आपके विचार से समानता के बारे में शंका करने के लिए कांता के पास क्या पर्याप्त कारण हैं? एक बार सोचिए ...........

कांता उन बहुत-से लोगों में से एक है, जो भारतीय लोकतंत्र में रहते हैं और जिन्हें मताधिकार प्राप्त है, लेकिन जिनका दैनिक जीवन और कार्य करने की स्थितियाँ समानता से बहुत दूर हैं। निर्धन होने के अतिरिक्त भारत में लोगों को अन्य अनेक कारणों से भी असमानता का सामना करना पड़ता है।

भारत में सामान्यतः प्रचलित असमानताओं में से एक है- जातिगत व्यवस्था। 

यदि आप ग्रामीण भारत में रहते हैं, तो जातिगत पहचान का अनुभव शायद बहुत छोटी आयु में ही हो जाता है। यदि आप भारत के शहरी क्षेत्र में रहते हैं, तो शायद यह सोचेंगे कि लोग अब जात-पात में विश्वास नहीं करते। 
परंतु जरा किसी समाचारपत्र के वैवाहिक विज्ञापन के कॉलम को देखिए, तो आप पाएँगे कि उच्च शिक्षा प्राप्त शहरी भारतीय के दिमाग में भी जाति कितनी महत्त्वपूर्ण है।
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भारतीय लोकतंत्र में समानता


भारतीय संविधान सब व्यक्तियों को समान मानता है। इसका अर्थ है कि देश के व्यक्ति चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, किसी भी जाति, धर्म, शैक्षिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखते हों, वे सब समान माने जाएँगे। 

लेकिन इसके बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि असमानता खत्म हो गई है। यह खत्म नहीं हुई है, लेकिन फिर भी कम-से-कम भारतीय संविधान में सब व्यक्तियों की समानता के सिद्धांत को मान्य किया गया है। जहाँ पहले भेदभाव और दुव्र्यवहार से लोगों की रक्षा करने के लिए कोई कानून नहीं था, अब अनेक कानून लोगों के सम्मान तथा उनके साथ समानता के व्यवहार को सुनिश्चित करने के लिए मौजूद हैं।


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