शीतयुद्ध (cold war), एक ऐसा युद्ध जिसने मनुष्य जाति पर मंडराते खतरे को जैसे-तैसे संभाल लिया
दूसरे विश्वयुद्ध का अंत समकालीन विश्व-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। युद्ध की समाप्ति के कारण कुछ भी हों, लेकिन इसका परिणाम यही हुआ कि वैश्विक राजनीति के मंच पर दो महाशक्तियों का उदय हो गया। जर्मनी और जापान हार चुके थे और यूरोप तथा शेष विश्व विध्वंस की मार झेल रहे थे। अब अमरीका और सोवियत संघ विश्व की सबसे बड़ी शक्ति थे। इनके पास इतनी क्षमता थी कि विश्व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें।
अमरीका और सोवियत संघ का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दूसरे के मुकाबले खड़ा होना शीतयुद्ध (cold war) का कारण बना। शीतयुद्ध शुरू होने के पीछे यह समझ भी काम कर रही थी कि परमाणु बम से होने वाले विध्वंस की मार झेलना किसी भी राष्ट्र के बूते की बात नहीं। यह एक सीधा-सादा लेकिन असरदार तर्क था। जब दोनों महाशक्तियों के पास इतनी क्षमता के परमाणु हथियार हों कि वे एक-दूसरे को असहनीय क्षति पहुँचा सकें तो ऐसे में दोनों के बीच रक्तरंजित युद्ध होने की संभावना कम रह जाती है।
उकसावे के बावजूद कोई भी पक्ष युद्ध का जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा क्योंकि युद्ध से राजनीतिक फायदा चाहे किसी को भी हो, लेकिन इससे होने वाले विध्वंस को औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता। परमाणु युद्ध की सूरत में दोनों पक्षों को इतना नुकसान उठाना पड़ेगा कि उनमें से विजेता कौन है - यह तय करना भी असंभव होगा। अगर कोई अपने शत्रु पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नाकाम करने की कोशिश करता है तब भी दूसरे के पास उसे बर्बाद करने लायक हथियार बच जाएंगे।
इसे ‘अपरोध’ (रोक और संतुलन) का तर्क कहा गया। दोनों ही पक्षों के पास एक-दूसरे के मुकाबले और परस्पर नुकसान पहुँचाने की इतनी क्षमता होती है कि कोई भी पक्ष युद्ध का खतरा नहीं उठाना चाहता। इस तरह, महाशक्तियों के बीच गहन प्रतिद्वन्द्विता होने के बावजूद शीतयुद्ध रक्तरंजित युद्ध का रूप नहीं ले सका। इसकी तासीर ठंडी रही। पारस्परिक ‘अपरोध’ की स्थिति ने युद्ध तो नहीं होने दिया, लेकिन यह स्थिति पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को न रोक सकी।
अमरीका और सोवियत संघ का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दूसरे के मुकाबले खड़ा होना शीतयुद्ध (cold war) का कारण बना। शीतयुद्ध शुरू होने के पीछे यह समझ भी काम कर रही थी कि परमाणु बम से होने वाले विध्वंस की मार झेलना किसी भी राष्ट्र के बूते की बात नहीं। यह एक सीधा-सादा लेकिन असरदार तर्क था। जब दोनों महाशक्तियों के पास इतनी क्षमता के परमाणु हथियार हों कि वे एक-दूसरे को असहनीय क्षति पहुँचा सकें तो ऐसे में दोनों के बीच रक्तरंजित युद्ध होने की संभावना कम रह जाती है।
उकसावे के बावजूद कोई भी पक्ष युद्ध का जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा क्योंकि युद्ध से राजनीतिक फायदा चाहे किसी को भी हो, लेकिन इससे होने वाले विध्वंस को औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता। परमाणु युद्ध की सूरत में दोनों पक्षों को इतना नुकसान उठाना पड़ेगा कि उनमें से विजेता कौन है - यह तय करना भी असंभव होगा। अगर कोई अपने शत्रु पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नाकाम करने की कोशिश करता है तब भी दूसरे के पास उसे बर्बाद करने लायक हथियार बच जाएंगे।
इसे ‘अपरोध’ (रोक और संतुलन) का तर्क कहा गया। दोनों ही पक्षों के पास एक-दूसरे के मुकाबले और परस्पर नुकसान पहुँचाने की इतनी क्षमता होती है कि कोई भी पक्ष युद्ध का खतरा नहीं उठाना चाहता। इस तरह, महाशक्तियों के बीच गहन प्रतिद्वन्द्विता होने के बावजूद शीतयुद्ध रक्तरंजित युद्ध का रूप नहीं ले सका। इसकी तासीर ठंडी रही। पारस्परिक ‘अपरोध’ की स्थिति ने युद्ध तो नहीं होने दिया, लेकिन यह स्थिति पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को न रोक सकी।
हम ये कह सकते है कि शीतयुद्ध (cold war) ने समूची मनुष्य जाति पर मंडराते खतरे को जैसे-तैसे संभाल लिया।
- ये भी जानिए .... दूसरे विश्वयुद्ध का अंत, विश्व-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव
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