सांप्रदायिकता से क्या अभिप्राय है (What is Communalism) ?
हमारी अस्मिता के कई पहलू होते हैं। आप बालक हैं या बालिका, आप युवा भी हैं, आप किसी गाँव, शहर, जिला अथवा प्रांत के निवासी हैं और आप कुछ विशेष भाषाएँ बोलते हैं। आप भारतीय हैं परंतु आप विश्व-नागरिक भी हैं।
परिवारों की आय में फ़र्क होते ही हैं, इसलिए हम सभी किसी न किसी सामाजिक वर्ग के सदस्य हैं। हम में से अधिकांश का कोई न कोई धर्म है और हमारी जिंदगी में जाति की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। दूसरे शब्दों में, हमारी अस्मिताओं के कई अभिलक्षण हैं यानी कि वे जटिल होती हैं। कुछ विशेष संदर्भों में लोग अपनी जटिल अस्मिताओं के कुछ चुने हुए पहलुओं (जैसे धर्म) को ज्यादा महत्त्वपूर्ण मान बैठते हैं। लेकिन इसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जा सकता।
सांप्रदायिकता (communalism) उस राजनीति को कहा जाता है जो धार्मिक समुदायों के बीच विरोध और झगडे़ पैदा करती है। ऐसी राजनीति धार्मिक पहचान को बुनियादी और अटल मानती है। सांप्रदायिक राजनीतिज्ञों की कोशिश रहती है कि धार्मिक पहचान को मजबूत बनाया जाए। वे इसे एक स्वाभाविक अस्मिता मान कर प्रस्तुत करते हैं, मानो लोग ऐसी पहचान लेकर पैदा हुए हों, मानो अस्मिताएँ इतिहास और समय के दौर से गुजरते हुए बदलती नहीं हैं।
सांप्रदायिकता किसी भी समुदाय में एकता पैदा करने के लिए आंतरिक फर्को को दबाती है, उस समुदाय की एकता पर जोर देती है, और उस समुदाय को किसी न किसी अन्य समुदाय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करती है।
ये भी जानिए... भारतीय धर्मनिरपेक्षता (Indian Secularism) संविधान की नजर से
यह कहा जा सकता है कि सांप्रदायिकता किसी चिन्हित गैर के खिलाफ घृणा की राजनीति को पोषित करती है। मुस्लिम सांप्रदायिकता हिंदुओं को गैर बता कर उनका विरोध करती है और ऐसे ही हिंदू सांप्रदायिकता मुसलमानों को गैर समझ कर उनके खिलाफ डटी रहती है। इस पारस्परिक घृणा से हिंसा की राजनीति को बढ़ावा मिलता है।
इसका अर्थ है कि सांप्रदायिकता धार्मिक अस्मिता का विशेष तरह से राजनीतिकरण है जो धार्मिक समुदायों में झगड़े पैदा करवाने की कोशिश करता है। किसी भी बहु-धार्मिक देश में धार्मिक राष्ट्रवादय् शब्दों का अर्थ भी सांप्रदायिकता के करीब- करीब हो सकता है। ऐसे देश में अगर कोई व्यक्ति किसी धार्मिक समुदाय को राष्ट्र मानता है तो वह विरोध और झगड़ों के बीज बो रहा है।
No comments: