इस्लाम और सूफी मत


संतों और सूफियों में बहुत अधिक समानता थी, यहाँ तक कि यह भी माना जाता है कि उन्होंने आपस में कई विचारों का आदान-प्रदान किया और उन्हें अपनाया। सूफी मुसलमान रहस्यवादी थे। वे धर्म के बाहरी आडंबरों को अस्वीकार करते हुए ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति तथा सभी मनुष्यों के प्रति दयाभाव रखने पर बल देते थे।

इस्लाम ने एकेश्वरवाद यानी एक अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण का दृढ़ता से प्रचार किया। उसने मूर्तिपूजा को अस्वीकार कर दिया और उपासना पद्धतियों को सामूहिक प्रार्थना-नमाज-का रूप देकर, उन्हें काफी सरल बना दिया। साथ ही मुसलिम विद्वानों (उलेमा) ने ‘शरियत’ नाम से एक धार्मिक कानून बनाया। सूफी लोगों ने मुसलिम धार्मिक विद्वानों द्वारा निर्धारित विशद् कर्मकांड और आचार-संहिता को बहुत कुछ अस्वीकार कर दिया। वे ईश्वर के साथ ठीक उसी प्रकार जुड़े रहना चाहते थे, जिस प्रकार एक प्रेमी, दुनिया की परवाह किए बिना अपनी प्रियतमा के साथ जुड़े रहना चाहता है। 

संत-कवियों की तरह सूफी लोग भी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए काव्य रचना किया करते थे। गद्य में एक विस्तृत साहित्य तथा कई किस्से-कहानियाँ इन सूफी संतों के इर्द-गिर्द विकसित हुईं। मध्य एशिया के महान सूफी  संतों में गज्जाली, रूमी और सादी के नाम उल्लेखनीय हैं। नाथपंथियों, सिद्धों और योगियों की तरह, सूफी  भी यही मानते थे कि दुनिया के प्रति अलग नजरिया अपनाने के लिए दिल को सिखाया-पढ़ाया जा सकता है। उन्होंने किसी औलिया या पीर की देख-रेख में जिक्र (नाम का जाप), चिंतन, समा (गाना), रक्स (नृत्य), नीति-चर्चा, साँस पर नियंत्रण आदि के जरिए प्रशिक्षण की विस्तृत रीतियाें का विकास किया। 

इस्लाम और सूफी मत

सूफी सतं अपने खानकाहों में विशेष बैठकों का आयोजन करते थे जहाँ सभी प्रकार के भक्तगण, जिनमें शाही घरानों के लोग तथा अभिजात और आम लोग भी शामिल होते थे। इन खानकाहों में आते थे। वे आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते थे। अपनी दुनियादारी की समस्याओं को सुलझाने के लिए संतों से आशीर्वाद माँगते थे अथवा संगीत तथा नृत्य के जलसों में ही शामिल होकर चले जाते थे।

अकसर लोग यह समझते थे कि सूफी औलियाओं के पास चमत्कारिक शक्तियाँ होती है जिनसे आम लोगों बीमारियों और तकलीफ़ों से छुटकारा मिल सकता है। सूफी संत की दरगाह एक तीर्थस्थल बन जाता था, जहाँ सभी ईमान-धर्म के लोग हजारों की संख्या में इकट्ठे होते थे।

मालिक (प्रभु) की खोज
जलालुद्दीन रूमी तेरहवीं सदी का महान सूफी शायर था। 
वह ईरान का रहने वाला था और उसने फारसी में काव्य रचना की। 
उसकी कृति का एक उद्धरण प्रस्तुत हैः
इस्लाम और सूफी मत
वह ईसाइयों की सूली पर नहीं था। मैं हिंदू मंदिरों में गया। 
वहाँ भी उसका कोई नामोनिशान नहीं था। 
न तो वह ऊँचाइयों में मिला न ही खाइयों में...
मैं मक्का के काबा भी गया। वह वहाँ नहीं था। 
मैंने उसके बारे में दार्शनिक एविसेन्ना से पूछा। 
वह एविसेन्ना की पहुँच से परे था...
मैंने अपने दिल में झाँका। यही उसकी जगह थी। 
वहीं मैंने उसे पाया। वह और कहीं नहीं था।




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