भारतीय स्वतंत्रता के बाद एक नया और खंडित राष्ट्र
अगस्त 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो उसके सामने कई बड़ी चुनौतियाँ थीं। बँटवारे की वजह से 80 लाख शरणार्थी पाकिस्तान से भारत आ गए थे। इन लोगों के लिए रहने का इंतजाम करना और उन्हें रोजगार देना जरूरी था। इसके बाद रियासतों की समस्या थी। तकरीबन 500 रियासतें राजाओं या नवाबों के शासन में चल रही थीं। इन सभी को नए राष्ट्र में शामिल होने के लिए तैयार करना एक टेढ़ा काम था। शरणार्थियों और रियासतों की समस्या पर फौरन ध्यान देना लाजिमी था। लंबे दौर में इस नवजात राष्ट्र को एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था भी विकसित करनी थी जो यहाँ के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को सबसे अच्छी तरह व्यक्त कर सके।
1947 में भारत की आबादी काफी बड़ी थी तकरीबन 34-35 करोड़। यह आबादी भी आपस में बँटी हुई थी। इसमें ऊँची जाति और नीची जाति, बहुल हिंदू समुदाय और अन्य धर्मों को मानने वाले भारतीय थे। इस विशाल देश के लोग तरह-तरह की भाषाएँ बोलते थे, उनके पहनावों में भारी फर्क था, उनके खान-पान और काम-धंधों में भारी विविधता थी। इतनी विविधता वाले लोगों को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में कैसे संगठित किया जा सकता था?
एकता की समस्या के साथ ही विकास भी एक बड़ी समस्या थी। स्वतंत्रता के समय भारत की एक विशाल संख्या गाँवों में रहती थी। आजीविका के लिए किसान और काश्तकार बारिश पर निर्भर रहते थे। यही स्थिति अर्थव्यवस्था के गैर-कृषि क्षेत्रें की थी। अगर फसल चौपट हो जाती तो नाई, बढ़ई, बुनकर और अन्य कारीगरों की आमदनी पर भी संकट पैदा हो जाता था। शहरों में फैक्ट्री मजदूर भीड़ भरी झुग्गी बस्तियों में रहते थे जहाँ शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधाओं की खास व्यवस्था नहीं थी। इस विशाल आबादी को गरीबी के चंगुल से निकालने के लिए न केवल खेती की उपज बढ़ाना जरूरी था बल्कि नए उद्योगों का निर्माण भी करना था जहाँ लोगों को रोजगार मिल सके।
एकता और विकास की प्रक्रियाओं को साथ-साथ चलना था। अगर भारत के विभिन्न तबकों के बीच मौजूद मतभेदों को दूर न किया जाता तो वे हिंसक और बहुत खतरनाक टकरावों का रूप ले सकते थे। लिहाजा ऐसे टकराव देश के लिए मँहगे भी पड़ते थे। कहीं ऊँची जाति और नीची जाति के बीच, कहीं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तो कहीं किसी और वजह से तनाव की आशंका बनी हुई थी। दूसरी तरफ, अगर आर्थिक विकास के लाभ आबादी के बड़े हिस्से को नहीं मिलते हैं तो और ज्यादा भेदभाव पैदा हो सकता था। ऐसी स्थिति में अमीर और गरीब, शहर और देहात, संपन्न और पिछड़े इलाकों का फर्क पैदा हो सकता था।
इलाहाबाद में महात्मा गांधी की अस्थियों का विर्सजन, फरवरी 1948
अभी स्वतंत्रता को छः महीने भी नहीं हुये थे कि सारा राष्ट्र गहरे शोक में पड़ गया। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी।
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1947 में भारत की आबादी काफी बड़ी थी तकरीबन 34-35 करोड़। यह आबादी भी आपस में बँटी हुई थी। इसमें ऊँची जाति और नीची जाति, बहुल हिंदू समुदाय और अन्य धर्मों को मानने वाले भारतीय थे। इस विशाल देश के लोग तरह-तरह की भाषाएँ बोलते थे, उनके पहनावों में भारी फर्क था, उनके खान-पान और काम-धंधों में भारी विविधता थी। इतनी विविधता वाले लोगों को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में कैसे संगठित किया जा सकता था?
एकता की समस्या के साथ ही विकास भी एक बड़ी समस्या थी। स्वतंत्रता के समय भारत की एक विशाल संख्या गाँवों में रहती थी। आजीविका के लिए किसान और काश्तकार बारिश पर निर्भर रहते थे। यही स्थिति अर्थव्यवस्था के गैर-कृषि क्षेत्रें की थी। अगर फसल चौपट हो जाती तो नाई, बढ़ई, बुनकर और अन्य कारीगरों की आमदनी पर भी संकट पैदा हो जाता था। शहरों में फैक्ट्री मजदूर भीड़ भरी झुग्गी बस्तियों में रहते थे जहाँ शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधाओं की खास व्यवस्था नहीं थी। इस विशाल आबादी को गरीबी के चंगुल से निकालने के लिए न केवल खेती की उपज बढ़ाना जरूरी था बल्कि नए उद्योगों का निर्माण भी करना था जहाँ लोगों को रोजगार मिल सके।
एकता और विकास की प्रक्रियाओं को साथ-साथ चलना था। अगर भारत के विभिन्न तबकों के बीच मौजूद मतभेदों को दूर न किया जाता तो वे हिंसक और बहुत खतरनाक टकरावों का रूप ले सकते थे। लिहाजा ऐसे टकराव देश के लिए मँहगे भी पड़ते थे। कहीं ऊँची जाति और नीची जाति के बीच, कहीं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तो कहीं किसी और वजह से तनाव की आशंका बनी हुई थी। दूसरी तरफ, अगर आर्थिक विकास के लाभ आबादी के बड़े हिस्से को नहीं मिलते हैं तो और ज्यादा भेदभाव पैदा हो सकता था। ऐसी स्थिति में अमीर और गरीब, शहर और देहात, संपन्न और पिछड़े इलाकों का फर्क पैदा हो सकता था।
इलाहाबाद में महात्मा गांधी की अस्थियों का विर्सजन, फरवरी 1948
अभी स्वतंत्रता को छः महीने भी नहीं हुये थे कि सारा राष्ट्र गहरे शोक में पड़ गया। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी।
उसी शाम हक्के-बक्के राष्ट्र ने आकाशवाणी पर जवाहरलाल नेहरू का भावुक भाषण सुना दोस्तों, साथियो, हमारी जिंदगी की रोशनी बुझ गई और चारों तरफ अँधेरा है--- हमारे प्रिय नेता--- राष्ट्रपिता अब नहीं रहे।
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