मोहर: एक शहरी शिल्प-कृति


भारत में, प्राचीन काल में पत्थर की मोहरें होती थीं जिनपर चिन्ह अंकित किए गए होते थे। लेकिन मेसोपोटामिया में, पहली शताब्दी ई-पू- के अंत तक पत्थर की बेलनाकर मोहरें, जो बीच में आर-पार छिदी होती थीं, एक तीली लगाकर गीली मिट्टी के ऊपर घुमाई जाती थीं और इस प्रकार उनसे लगातार चित्र बनता जाता था।

वे अत्यंत कुशल कारीगराें द्वारा उकेरी जाती थीं और कभी-कभी उनमें ऐसे लेख होते थे जैसे- मालिक का नाम, उसके इष्टदेव का नाम और उसकी अपनी पदीय स्थिति, आदि।

किसी कपड़े की गठरी या बर्तन के मुँह को चिकनी मिट्टी से लीप-पोतकर उसपर वह मोहर घुमाई जाती थी जिससे उसमें अंकित लिखावट मिट्टी की सतह पर छप जाती थी । इससे उस गठरी या बर्तन में रखी वस्तुओं को मोहर लगाकर सुरक्षित किया जा सकता था।

मोहर: एक शहरी शिल्प-कृति

जब इस मोहर को मिट्टी की बनी पट्टिकाओं पर लिखे पत्र पर घुमाया जाता था तो वह मोहर उस पत्र की प्रामाणिकता की प्रतीक बन जाती थी। इस प्रकार मुद्रा सार्वजनिक जीवन में नगरवासी की भूमिका को दर्शाती थी।


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