दास प्रथा - काले गुलाम और गोरे बागान मालिक


आप शायद यह जानते होंगे कि ज्योतिराव फुले ने अपनी पुस्तक गुलामगीरी में जातीय उत्पीड़न और अमरीका में प्रचलित दास प्रथा के बीच किस तरह संबंध स्थापित किया था। पर क्या आप जानते हैं कि दासता की यह प्रथा क्या थी?

सत्रहवीं शताब्दी में जब यूरोपीय खोजी यात्री और व्यापारी पहली बार अफ्रीका पहुँचे तो उन्होंने गुलामों का व्यापार शुरू कर दिया। वे अफ्रीका के काले लोगों को पकड़कर अमरीका ले आते थे और वहाँ के गोरे बागान मालिकों को बेच देते थे। उन्हें कपास और अन्य बागानों में काम करना पड़ता था जो ज्यादातर दक्षिणी संयुक्त राज्य अमरीका में स्थित थे। बागानों में ये गुलाम सुबह से लेकर देर रात तक काम करते थे। सही ढंग से काम न करने के नाम पर मालिक उन्हें सजा देते थे, कोड़ों से पीटते थे और तरह-तरह की यातनाएँ देते थे।

श्वेत और अश्वेत, सभी तरह के बहुत सारे लोगों ने संगठित रूप से इस दास प्रथा का विरोध किया। इसी क्रम में उन्होंने 1776 की अमेरिकी क्रांति की भावनाओं का हवाला देते हुए आह्नान किया: अमरीकवासियों, अपने घोषणापत्र को देखो! क्या तुम्हें अपनी भाषा भीसमझ में नहीं आती? 

गेटिसबर्ग में दिए गए अपने अत्यंत भावप्रवण भाषण में अब्राहम लिंकन ने कहा था कि जिन्होंने दास प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया है वे लोकतंत्र के पथप्रदर्शक हैं। उन्होंने लोगों से आह्नान किया कि वे नस्ली समानता के लिए कदम उठाएँ ताकि धरती से ‘जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकार’ का नाश न हो । 




1 comment:



Recent Posts :

Powered by Blogger.